वट सावित्री व्रत


वट सावित्री व्रत सौभाग्य प्रदान करने वाला तथा संतान की प्राप्ति में सहायता देने वाला व्रत माना गया है। भारतीय संस्कृति में यह व्रत आदर्श नारीत्व का प्रतीक बन चुका है। इस व्रत की तिथि को लेकर भिन्न मत हैं। स्कंद पुराण तथा भविष्योत्तर पुराण के अनुसार ज्येष्ठ मास के शुक्ल पक्ष की पूर्णिमा को यह व्रत करने का विधान है, वहीं निर्णयामृत आदि के अनुसार ज्येष्ठ मास की अमावस्या को व्रत करने की बात कही गई है।

वट सावित्री व्रत में ‘वट’ और ‘सावित्री’ दोनों का विशेष महत्व माना गया है। पीपल की तरह वट या बरगद के पेड़ का भी विशेष महत्व है। पाराशर मुनि के अनुसार- ‘वट मूले तोपवासा’ ऐसा कहा गया है। पुराणों में यह स्पष्ट किया गया है कि वट में ब्रह्मा, विष्णु व महेश, तीनों का वास है। इसके नीचे बैठकर पूजन, व्रत कथा आदि सुनने से मनोकामना पूरी होती है। वट वृक्ष अपनी विशालता के लिए भी प्रसिद्ध है। संभव है वनगमन में ज्येष्ठ मास की तपती धूप से रक्षा के लिए भी वट के नीचे पूजा की जाती रही होगी और बाद में यह धार्मिक परंपरा के रूप में विकसित हो गई हो।

दर्शनिक दृष्टि से…

दार्शनिक दृष्टि से देखें तो वट वृक्ष दीर्घायु व अमरत्व-बोध के प्रतीक के नाते भी स्वीकार किया जाता है। वट वृक्ष ज्ञान व निर्वाण का भी प्रतीक है। भगवान बुद्ध को इसी वृक्ष के नीचे ज्ञान प्राप्त हुआ था। इसलिए वट वृक्ष को पति की दीर्घायु के लिए पूजना, इस व्रत का एक अंग माना गया है । महिलाएँ व्रत-पूजन कर, कथा कर्म के साथ-साथ परिक्रमा के दौरान वट वृक्ष के आसपास सूत के धागे लपेटती हैं।

* वट सावित्री व्रत की कथा*

वट वृक्ष का पूजन और सावित्री-सत्यवान की कथा का स्मरण करने के विधान के कारण ही यह व्रत वट सावित्री के नाम से प्रसिद्ध हुआ। सावित्री भारतीय संस्कृति में ऐतिहासिक चरित्र माना जाता है। सावित्री का अर्थ वेद माता गायत्री और सरस्वती भी होता है। सावित्री का जन्म भी विशिष्ट परिस्थितियों में हुआ था। कहते हैं कि भद्र देश के राजा अश्वपति की कोई संतान नहीं थी।

उन्होंने संतान की प्राप्ति के लिए मंत्रोच्चारण के साथ प्रतिदिन एक लाख आहुतियाँ दीं। अठारह वर्षों तक यह क्रम जारी रहा। इसके बाद देवी सावित्री ने प्रकट होकर वर दिया कि, “राजन! तुझे एक तेजस्वी कन्या पैदा होगी।” सावित्री देवी की कृपा से जन्म लेने के कारण उस कन्या का नाम सावित्री रखा गया।

कन्या बड़ी होकर बेहद रूपवान हुई। योग्य वर न मिलने के कारण सावित्री के पिता दुःखी थे। उन्होंने कन्या को स्वयं वर तलाशने भेजा। सावित्री तपोवन में भटकने लगीं। वहाँ साल्व देश के राजा द्युमत्सेन भी रहते थे क्योंकि उनका राज्य किसी ने छीन लिया था। उनके पुत्र सत्यवान को देखकर सावित्री ने पति के रूप में उनका वरण किया।

कहते हैं कि साल्व देश पूर्वी राजस्थान या अलवर अंचल के इर्द-गिर्द था। सत्यवान अल्पायु थे। वे वेद ज्ञाता थे। नारद मुनि ने सावित्री से मिलकर सत्यवान से विवाह न करने की सलाह दी थी परंतु सावित्री ने सत्यवान से ही विवाह रचाया। पति की मृत्यु की तिथि में जब कुछ ही दिन शेष रह गए तब सावित्री ने घोर तपस्या की थी, जिसका फल उन्हें बाद में मिला था।

* वट सावित्री व्रत की पूजा विधि *

पुराण, व्रत व साहित्य में सावित्री की अविस्मरणीय साधना की बात कही गई है। सौभाय के लिए किया जाने वाला वट-सावित्री व्रत आदर्श नारीत्व के प्रतीक के नाते स्वीकार किया गया है। विधि अनुसार…

  • सर्वप्रथम पूजा स्थल पर रंगोली बना लें, उसके बाद अपनी पूजा की सामग्री वहां रखें।
  • अपने पूजा स्थल पर एक चौकी पर लाल रंग का कपड़ा बिछाकर उस पर लक्ष्मी नारायण और शिव-पार्वती की प्रतिमा या मूर्ति स्थापित करें।
  • पूजा स्थल पर तुलसी का पौधा रखें।
  • सबसे पहले गणेश जी और माता गौरी की पूजा करें। तत्पश्चात बरगद के वृक्ष की पूजा करें।
  • पूजा में जल, मौली, रोली, कच्चा सूत, भिगोया हुआ चना, फूल तथा धूप का प्रयोग करें। भिगोया हुआ चना, वस्त्र और कुछ धन अपनी सास को देकर आशीर्वाद प्राप्त करें।
  • सावित्री-सत्यवान की कथा का पाठ करें और अन्य लोगों को भी सुनाएं।
  • निर्धन गरीब स्त्री को सुहाग की सामाग्री दान करें।

इस प्रकार अपना व्रत सम्पन्न करें।

|| धन्यवाद ||

||लक्ष्मीनारायण भगवान की जय हो||