श्री मानस अमृत राम कथा
- विधिपूर्वक राम कथा करवाने में 7 दिन , 9 दिन या अधिकतम 11 दिन का समय लगता है, जिसमें नित्य 4 घंटे की कथा होती है l
‘मानस अमृत राम कथा का उद्देश्य’
मानस अमृत राम कथा का मुख्य उद्देश्य है “पल – पल मानस – घर – घर मानस” के सिद्धांत को अपने जीवन में ग्रहण करना, जिससे हमारी संस्कृति लुप्त न हो और मनुष्य अपने संस्कारो को न भूले। इसी कारण संस्था द्वारा धार्मिक एवं सांस्कृतिक कार्यक्रमों का आयोजन कराया जाता है।
‘रामायण की कथा’
कहते हैं “हरि अनंत, हरि कथा अनंता…..”।
सबसे पहले श्रीराम की कथा हनुमानजी ने लिखी थी फिर महर्षि वाल्मीकि ने। वाल्मीकि राम के ही काल के ऋषि थे। उन्होंने राम और उनके जीवन को देखा था। वे ही अच्छी तरह जानते थे कि राम क्या हैं और कौन हैं? लेकिन जब सवाल लिखने का आया, तब नारद मुनि ने उनकी सहायता की। कहते हैं कि राम के काल में देवता धरती पर आया-जाया करते थे और वे धरती पर ही हिमालय के उत्तर में रहते थे।
रामायण के बाद राम से जुड़ी हजारों कथाएं प्रचलन में आईं और सभी में राम की कथा में थोड़े-बहुत बदलाव है। साथ ही कुछ रामायणों में ऐसे भी प्रसंग मिलते हैं जिनका उल्लेख वाल्मीकि रामायण में नहीं मिलता है।
राम की कथा को वाल्मीकि जी द्वारा लिखे जाने के बाद दक्षिण भारतीय भक्तों ने अलग तरीके से लिखा। दक्षिण भारतीय भक्तों के जीवन में राम का बहुत महत्व है। कर्नाटक और तमिलनाडु में राम ने अपनी सेना का गठन किया था। तमिलनाडु में ही श्रीराम ने रामेश्वरम् ज्योतिर्लिंग की स्थापना की थी।
वाल्मीकि रामायण और बाकी की रामायणों में जो अंतर देखने को मिलता है वह इसलिए कि वाल्मीकि रामायण को तथ्यों और घटनाओं के आधार पर लिखा गया था, जबकि अन्य रामायणों को श्रुति (सुनने) के आधार पर लिखा गया। जैसे बुद्ध ने अपने पूर्व जन्मों का वृत्तांत बताते हुए अपने शिष्यों को रामकथा सुनाई, जैसे बहुत समय बाद तुलसीदास को उनके गुरु ने सोरों क्षेत्र में रामकथा सुनाई। इसी तरह जनश्रुतियों के आधार पर हर प्रदेश ने अपनी रामायण को लिखा।
रामकथा सामान्यतः बताने के लिए सुनाई जाती है। रामायणों की संख्या और पिछले 2500 या उससे भी अधिक सालों से दक्षिण तथा दक्षिण-पूर्वी एशिया में उनके प्रभाव का दायरा बहुत व्यापक है। जितनी भाषाओं में रामकथा पाई जाती है, उनकी सूची बनाने में ही आप थक जाएंगे- अन्नामी, बाली, बांग्ला, कम्बोडियाई, चीनी, गुजराती, जावाई, कन्नड़, कश्मीरी, खोटानी, लाओसी, मलेशियाई, मराठी, ओड़िया, प्राकृत, संस्कृत, संथाली, सिंहली, तमिल, तेलुगु, थाई, तिब्बती, कावी आदि हजारों भाषाओं में उस काल में और उसके बाद कृष्ण काल, बौद्ध काल में चरित रामायण में अनुवाद के कारण कई परिवर्तन होते चले गए, लेकिन मूल कथा आज भी वैसी की वैसी ही है।
कवियों और साहित्यकारों ने रामायण को और रोचक बनाने के लिए उनकी मूलकथा के साथ तो छेड़छाड़ नहीं की लेकिन उन्होंने कथा को एक अलग रूप और रंग से सज्जित कर दिया। नृत्य-नाटिकाओं के अनुसार भी कथाएं लिखी गईं और शास्त्रीय तथा लोक परंपरा दोनों के ही अनुसार राम और रावण की कथा को श्रृंगारिक बनाया गया। इस तरह रामायणों की संख्या और भी बढ़ जाती है।
सदियों के सफर के दौरान इनमें कुछ तो बदलाव हुआ ही होगा। लेकिन सदियों के इस सफर के कारण ही लोग इसे मात्र एक काव्य मानने की भूल और पाप करते हैं। दक्षिण और दक्षिण-पूर्वी एशियाई देशों और संस्कृतियों में राम और रावण के युद्ध को अलग संदर्भों में लिया गया। दक्षिण भारत, श्रीलंका, इंडोनेशिया, मलेशिया आदि द्वीप राष्ट्रों में रावण की बहुत ख्याति और सम्मान था इसलिए उक्त देशों में रामकथा को अलग तरीके से लिखा गया।
सर्वप्रथम श्रीराम की कथा भगवान शंकर ने माता पार्वती को सुनाई थी। उस कथा को एक कौवे ने भी सुन लिया। उसी कौवे का पुनर्जन्म काकभुशुण्डि के रूप में हुआ। काकभुशुण्डि को पूर्व जन्म में भगवान शंकर के मुख से सुनी वह रामकथा पूरी की पूरी याद थी। उन्होंने यह कथा अपने शिष्यों को सुनाई। इस प्रकार रामकथा का प्रचार-प्रसार हुआ। भगवान शंकर के मुख से निकली श्रीराम की यह पवित्र कथा अध्यात्म रामायण के नाम से विख्यात है।
इसके अलावा एक कथा और प्रचलित है। कहते हैं कि सर्वप्रथम रामकथा हनुमानजी ने लिखी थी और वह भी शिला पर। यह रामकथा वाल्मीकि जी की रामायण से भी पहले लिखी गई थी और ‘हनुमन्नाटक’ के नाम से प्रसिद्ध है।
वैदिक साहित्य के बाद जो रामकथाएं लिखी गईं, उनमें वाल्मीकि रामायण सर्वोपरि है। यह इसी कल्प की कथा है और यही प्रामाणिक है। वाल्मीकि जी ने राम से संबंधित घटनाचक्र को अपने जीवनकाल में स्वयं देखा या सुना था इसलिए उनकी रामायण सत्य के काफी निकट है, लेकिन उनकी रामायण के सिर्फ 6 ही कांड थे। उत्तरकांड को बौद्धकाल में जोड़ा गया। उत्तरकांड का वाल्मीकि रामायण से कोई संबंध नहीं है।
अद्भुत रामायण संस्कृत भाषा में रचित 27 सर्गों का काव्य-विशेष है। कहा जाता है कि इस ग्रंथ के प्रणेता भी वाल्मीकि जी थे। किंतु शोधकर्ताओं के अनुसार इसकी भाषा और रचना से लगता है कि किसी बहुत परवर्ती कवि ने इसका प्रणयन किया है अर्थात अब यह वाल्मीकि कृत नहीं रही।
वर्तमान में लगभग 28 रामायण प्रचलन में हैं:
1. अध्यात्म रामायण,
2. वाल्मीकि की ‘रामायण’ (संस्कृत),
3. आनंद रामायण,
4. अद्भुत रामायण,
5. रंगनाथ रामायण (तेलुगु),
6. कवयित्री मोल्डा रचित मोल्डा रामायण (तेलुगु),
7. रूइपादकातेणपदी रामायण (उड़िया),
8. रामकेर (कंबोडिया),
9. तुलसीदास की ‘रामचरित मानस’ (अवधी),
10. कम्बन की ‘रामावतारम’ (तमिल),
11. कुमार दास की ‘जानकी हरण’ (संस्कृत),
12. मलेराज कथाव (सिंहली),
13. किंरस-पुंस-पा की ‘काव्यदर्श’ (तिब्बती),
14. रामायण काकावीन (इंडोनेशियाई कावी),
15. हिकायत सेरीराम (मलेशियाई भाषा),
16. रामवत्थु (बर्मा),
17. रामकेर्ति-रामकेर (कंपूचिया खमेर),
18. तैरानो यसुयोरी की ‘होबुत्सुशू’ (जापानी),
19. फ्रलक-फ्रलाम-रामजातक (लाओस),
20. भानुभक्त कृत रामायण (नेपाल),
21. रामजात्तौ (बर्मी भाषा),
22. रामकियेन (थाईलैंड),
23. खोतानी रामायण (तुर्किस्तान),
24. जीवक जातक (मंगोलियाई भाषा),
25. मसीही रामायण (फारसी),
26. शेख साद (या सादी), मसीह की ‘दास्ताने राम व सीता’,
27. महारादिया लावण्या (मारनव भाषा, फिलीपींस),
28. दशरथ कथानम (चीन) आदि।
रामायण एक संस्कृत महाकाव्य है जिसकी रचना महर्षि वाल्मीकि ने की थी। यह भारतीय साहित्य के दो विशाल महाकाव्यों में से एक है, जिसमें दूसरा महाकाव्य महाभारत है। हिंदू धर्म में रामायण का एक महत्वपूर्ण स्थान है जिसमें हम सबको रिश्तों के कर्तव्यों को समझाया गया है। रामायण महाकाव्य में एक आदर्श पिता, आदर्श पुत्र, आदर्श पत्नी, आदर्श भाई, आदर्श मित्र, आदर्श सेवक और आदर्श राजा को दिखाया गया है। इस महाकाव्य में भगवान विष्णु के रामावतार को दर्शाया गया है उनकी चर्चा की गई है। रामायण महाकाव्य में 24000 छंद और 500 सर्ग हैं जो कि 7 भागों में विभाजित हैं।
‘बालकांड की कथा’
बहुत समय पहले की बात है, सरयू नदी के किनारे कौशल नामक राज्य था जिसकी राजधानी अयोध्या थी। अयोध्या के राजा का नाम दशरथ था, जिनकी तीन पत्नियां थी। उनकी पत्नियों का नाम था कौशल्या, कैकेयी और सुमित्रा। राजा दशरथ बहुत समय तक निसंतान थे और वह अपने सूर्यवंश की वृद्धि अर्थात अपने उत्तराधिकारी को लेकर बहुत चिंतित थे। इसलिए राजा दशरथ ने अपने कुल गुरु ऋषि वशिष्ठ की सलाह मानकर पुत्र कमेस्टि यज्ञ करवाया। उस यज्ञ के फलस्वरुप राजा दशरथ को चार पुत्र प्राप्त हुए। उनकी पहली पत्नी कौशल्या से प्रभु श्री राम, कैकेयी से भरत और सुमित्रा से लक्ष्मण और शत्रुघ्न का जन्म हुआ। उनके चारों पुत्र दिव्य शक्तियों से परिपूर्ण और यशस्वी थे। उन चारों को राजकुमारों की तरह पाला गया, और उनको शास्त्रों और युद्ध की कला सिखाई गई l
जब प्रभु श्री राम 16 वर्ष के हुए तब एक बार ऋषि विश्वामित्र राजा दशरथ के पास आए और अपने यज्ञ में विघ्न उत्पन्न करने वाले राक्षसों के आतंक के बारे में राजा दशरथ को बताया और उनसे सहायता मांगी। ऋषि विश्वामित्र की बात सुनकर राजा दशरथ उनकी सहायता करने के लिए तैयार हो गए और अपने सैनिक उनके साथ भेजने का आदेश दिया, पर ऋषि विश्वामित्र ने इस कार्य के लिए राम और लक्ष्मण का चयन किया। राम और लक्ष्मण ऋषि विश्वामित्र के साथ उनके आश्रम जाते हैं, और उनके यज्ञ में विघ्न डालने वाले राक्षसों का नाश कर देते हैं। इससे ऋषि विश्वामित्र प्रसन्न होकर राम और लक्ष्मण को अनेक दिव्यास्त्र प्रदान करते हैं जिनसे आगे चलकर प्रभु श्रीराम और लक्ष्मण अनेक दानवों का नाश करते हैं।
दूसरी ओर जनक मिथिला प्रदेश के राजा थे और वह भी निसंतान थे। और संतान प्राप्ति के लिए वह भी बहुत चिंतित थे। तब एक दिन उनको गहरे कुंड में एक बच्ची मिली। राजा जनक की खुशी का ठिकाना ना रहा और उस बच्ची को भगवान का वरदान मानकर उसे अपने महल ले आए। राजा जनक ने उस बच्ची का नाम सीता रखा। राजा जनक अपनी पुत्री सीता को बहुत ही अधिक स्नेह करते थे। सीता धीरे-धीरे बड़ी हुईं… सीता गुण और अद्वितीय सुंदरता से परिपूर्ण थीं। जब सीता विवाह योग्य हुईं तब राजा जनक ने अपनी प्रिय पुत्री सीता के लिए स्वयंवर रखने का निश्चय किया। राजा जनक ने सीता के स्वयंवर में शिव धनुष को उठाने वाले और उस पर प्रत्यंचा खींचने वाले से अपनी प्रिय पुत्री सीता से विवाह करने की शर्त रखी। सीता के गुणों और सुंदरता की चर्चा पहले से ही चारों तरफ फैल चुकी थी तो उनके स्वयंवर की खबर सुनकर बड़े-बड़े राजा सीता स्वयंवर में भाग लेने के लिए आने लगे। ऋषि विश्वामित्र भी राम और लक्ष्मण के साथ सीता स्वयंवर को देखने के लिए राजा जनक के नगर मिथिला पहुंचे।
जब सीता से शादी करने की इच्छा लिए दूर-दूर से राजा और महाराजा स्वयंवर में एकत्रित हुए तो स्वयंबर आरंभ हुआ। बहुत सारे राजाओं ने शिव धनुष को उठाने की कोशिश की लेकिन कोई भी धनुष को हिला भी नहीं पा रहा था उठाना तो बहुत दूर की बात थी। यह सब देखकर राजा जनक चिंतित हो गए। तब ऋषि विश्वामित्र ने उनकी चिंता दूर करते हुए अपने शिष्य राम को धनुष उठाने की अनुमति दी। प्रभु राम अपने गुरु को प्रणाम कर उठे और उन्होंने उस धनुष को बड़ी सरलता से उठा लिया। किन्तु जब वह उस पर प्रत्यंचा चढ़ाने लगे तो धनुष टूट गया। राजा जनक ने शर्त के अनुसार प्रभु श्रीराम से सीता का विवाह करने का निश्चय किया और साथ ही अपनी अन्य पुत्रियों का विवाह भी राजा दशरथ के पुत्रों से करवाने का विचार किया। इस प्रकार एक साथ ही राम का विवाह सीता से, लक्ष्मण का विवाह उर्मिला से, भरत का विवाह मांडवी से और शत्रुघ्न का विवाह श्रुतकीर्ति से हो गया। मिथिला में विवाह का एक बहुत बड़ा आयोजन हुआ और उसमें प्रभु राम और उनके भाइयों का विवाह संपन्न हुआ। विवाह के बाद बारात अयोध्या लौट आई।
‘अयोध्याकांड की कथा’
राम और सीता के विवाह को 12 वर्ष बीत गए थे और अब राजा दशरथ वृद्ध हो गए थे। वह अपने बड़े बेटे राम को अयोध्या के सिंहासन पर बिठाना चाहते थे। तब एक शाम राजा दशरथ की दूसरी पत्नी कैकेयी ने अपनी एक चतुर दासी मंथरा के बहकावे में आकर राजा दशरथ से दो वचन मांगे… (जो दो वचन, राजा दशरथ ने कई वर्ष पहले कैकेयी द्वारा जान बचाने के लिए देने का वादा किया था)। कैकेयी ने राजा दशरथ से अपने पहले वचन के रूप में राम को 14 वर्ष का वनवास और दूसरे वचन के रूप में अपने पुत्र भरत को अयोध्या के राज सिहासन पर बैठाने की बात कही। कैकई के इन दोनों वचनों को सुनते ही राजा दशरथ का दिल टूट गया और वह कैकेयी को अपने इन वचनों पर दोबारा विचार करने के लिए बोले। और बोले कि हो सके तो अपने यह वचन वापस ले लें। पर कैकेयी अपनी बात पर अटल रहीं, तब ना चाहते हुए भी राजा दशरथ ने अपने प्रिय पुत्र राम को बुलाकर उन्हें 14 वर्ष के लिए वनवास जाने को कहा।
राम ने अपने पिता राजा दशरथ का बिना कोई विरोध किए उनके आदेश को स्वीकार कर लिया। जब सीता और लक्ष्मण को प्रभु राम के वनवास जाने के बारे में पता चला तो उन्होंने भी राम के साथ वनवास जाने का आग्रह किया। जब राम ने अपनी पत्नी सीता को अपने साथ वन ले जाने से मना किया तब सीता ने प्रभु राम से कहा कि जिस वन में आप जाएंगे वही मेरी अयोध्या है, और आपके बिना अयोध्या मेरे लिए नरक समान है। लक्ष्मण के भी बहुत आग्रह करने पर भगवान राम ने उन्हें भी अपने साथ वन चलने की अनुमति दे दी। इस प्रकार राम, सीता और लक्ष्मण अयोध्या से वन जाने के लिए निकल गए। अपने प्रिय पुत्र राम के वन जाने से दुखी होकर राजा दशरथ ने अपने प्राण त्याग दिए।
इस दौरान भरत जो अपने मामा के यहां (ननिहाल) गए हुए थे, वह अयोध्या की घटना सुनकर बहुत ही ज्यादा दुखी हुए। भरत ने अपनी माता कैकेयी से अयोध्या के राज सिंहासन पर बैठने से मना कर दिया और वह अपने भाई राम को ढूंढते हुए वन में चले गए। वन में जाकर भरत, राम लक्ष्मण और सीता से मिले और उनसे अयोध्या वापस लौटने का आग्रह किया। तब राम ने अपने पिता के वचन का पालन करते हुए अयोध्या वापस नहीं लौटने का प्रण किया। तब भरत भगवान राम की चरण पादुका अपने साथ ले कर अयोध्या वापस लौट आए, और राम की चरण पादुका अयोध्या के राजसिंहासन पर रख दीं और राज दरबारियों से बोले कि जब तक भगवान राम वनवास से वापस नहीं लौटते तब तक उनकी चरण पादुका अयोध्या के राज सिंहासन पर रखी रहेंगी और मैं उनका एक दास बनकर यह राज चलाऊंगा।
‘अरण्यकांड की कथा’
भगवान राम के वनवास को 13 बरस बीत गए थे और वनवास का अंतिम वर्ष था। भगवान राम, सीता और लक्ष्मण गोदावरी नदी के किनारे जा रहे थे। गोदावरी के निकट एक जगह सीता जी को बहुत पसंद आई, उस जगह का नाम था पंचवटी। तब भगवान राम ने अपनी पत्नी की भावना को समझते हुए वनवास का शेष समय पंचवटी में ही बिताने का निर्णय लिया और वहीं पर वह तीनों कुटिया बनाकर रहने लगे। पंचवटी के जंगलों में ही एक दिन सुर्पनखा नाम की राक्षसी मिली। वह लक्ष्मण को अपने रंग रूप से लुभाना चाहती थी, जिसमें वह असफल रही तो उसने सीता को मारने का प्रयास किया। तब लक्ष्मण ने सुर्पनखा को रोकते हुए उसके नाक और कान काट दिए। जब इस बात की खबर सुर्पनखा के राक्षस भाई खर और दूषण को पता चली तो उन्होंने अपने राक्षस साथियों के साथ जाकर पंचवटी स्थित राम, लक्ष्मण, सीता की कुटिया पर हमला कर दिया। भगवान राम ने खर, दूषण और उनके सभी राक्षस साथियों का वध कर दिया।
जब इस घटना की खबर सुर्पनखा के दूसरे भाई रावण तक पहुंची तो उसने राक्षस मारीच की मदद से भगवान राम की पत्नी सीता का अपहरण करने की योजना बनाई। रावण के कहने पर राक्षस मारीच ने स्वर्ण मृग बनकर सीता का ध्यान अपनी ओर आकर्षित किया। स्वर्ण मृग की सुंदरता पर मोहित होकर सीता ने राम को उसे पकड़ने को भेज दिया। भगवान राम, रावण की इस योजना से अवगत थे क्योंकि भगवान राम तो अंतर्यामी थे, फिर भी अपनी पत्नी सीता की इच्छा पूरी करने के लिए वह उस स्वर्ण मृग के पीछे जंगल में चले गए और माता सीता की रक्षा हेतु अपने भाई लक्ष्मण को छोड़ गए। कुछ समय बाद माता सीता को भगवान राम की करुणा भरी मदद की आवाज सुनाई पड़ी तो वह लक्ष्मण को भगवान राम की सहायता के लिए जबरदस्ती भेजने लगीं। लक्ष्मण ने माता सीता को समझाने का बहुत प्रयत्न किया कि भगवान राम अजेय हैं, और उन्हें कोई हानि नहीं पहुंचा सकता, इसलिए लक्ष्मण अपने भ्राता राम की आज्ञा का पालन करते हुए माता सीता की रक्षा करना चाहते थे।
लक्ष्मण और माता सीता में बात इतनी बढ़ गई कि सीताजी ने लक्ष्मण को वचन देकर भगवान राम की सहायता करने के लिए लक्ष्मण को आदेश दे दिया। लक्ष्मण माता सीता की आज्ञा मानना तो चाहते थे लेकिन वह सीता को कुटिया में अकेला नहीं छोड़ना चाहते थे। इसलिए लक्ष्मण ने कुटिया से जाते समय कुटिया के चारों ओर एक लक्ष्मण रेखा बनाई, ताकि कोई भी उस रेखा के अंदर प्रवेश न कर सके और माता सीता को उस रेखा से बाहर न निकलने का आग्रह किया। और फिर लक्ष्मण भगवान राम की खोज में निकल पड़े। इधर रावण जो घात लगाए बैठा था, रास्ता साफ देखते ही एक साधु का वेश धारण कर माता सीता की कुटिया के आगे पहुंच गया और भिक्षा मांगने लगा। माता सीता रावण (जो एक साधु के वेश में था) की कुटिलता को नहीं समझ पाई और उसके भ्रमजाल में आकर लक्ष्मण की बनाई गई लक्ष्मण रेखा के बाहर कदम रख दिया और रावण माता सीता का बलपूर्वक हरण कर ले गया।
जब रावण सीता को बलपूर्वक अपने पुष्पक विमान में ले जा रहा था तो जटायु नामक गिद्ध ने उसे रोकने की कोशिश की। जटायु ने माता सीता की रक्षा करने का बहुत प्रयास किया जिसमें वह प्राणघातक रूप से घायल हो गया। रावण सीता को अपने पुष्पक विमान से उड़ा कर लंका ले गया और उन्हें राक्षसियों की कड़ी सुरक्षा में लंका की अशोक वाटिका में बैठा दिया। फिर रावण ने माता सीता के सामने उनसे विवाह करने की इच्छा प्रकट की। लेकिन माता सीता ने अपने पति भगवान राम के प्रति समर्पण होने के कारण रावण से विवाह करने के लिए मना कर दिया। इधर भगवान राम और लक्ष्मण माता सीता के अपहरण के बाद उनकी खोज करते हुए जटायु से मिले, तब उन्हें पता चला कि उनकी पत्नी सीता को लंकापति रावण उठाकर ले गया है। तब वह दोनों भाई सीता को बचाने के लिए निकल पड़े। भगवान राम और लक्ष्मण जब माता सीता की खोज कर रहे थे तब उनकी मुलाकात राक्षस कबंध और परम तपस्वी साध्वी शबरी से हुई। उन दोनों ने उन्हें सुग्रीव और हनुमान से मित्रता करने का सुझाव दिया।
‘किष्किंधाकांड की कथा’
रामायण में वर्णित किष्किंधाकांड वानरों के गढ़ पर आधारित है। भगवान राम वहां पर अपने सबसे बड़े भक्त हनुमान से मिले। महाबली हनुमान वानरों में से सबसे महान नायक थे। हनुमान की सहायता से भगवान राम और सुग्रीव की मित्रता हो गई | सुग्रीव को किष्किंधा के सिंहासन से भगा दिया गया था, फिर सुग्रीव ने भगवान राम से अपने भाई बाली को मारने में उनसे मदद मांगी। तब भगवान राम ने बाली का वध किया और फिर से सुग्रीव को किष्किंधा का सिहासन मिल गया। बदले में सुग्रीव ने भगवान राम को उनकी पत्नी माता सीता को खोजने में सहायता करने का वचन दिया।
हालांकि कुछ समय तक सुग्रीव अपने वचन को भूल कर अपनी शक्तियों और राजसुख का सुख भोगने में मग्न हो गए। फिर बाली की पत्नी तारा ने इस बात की खबर लक्ष्मण को दी, और लक्ष्मण ने सुग्रीव को संदेशा भिजवाया कि अगर वह अपना वचन भूल गया है तो वह वानर गढ़ को तबाह कर देंगें। तब सुग्रीव को अपना वचन याद आया और फिर लक्ष्मण की बात मानते हुए उन्होंने वानरों के दलों को संसार के चारों कोनों में माता सीता की खोज में भेज दिया। उत्तर, पश्चिम और पूर्व दल के वानर खोजकर्ता खाली हाथ वापस लौट आए। दक्षिण दिशा का खोज दल अंगद और हनुमान के नेतृत्व में था, और वह सभी सागर के किनारे जाकर रुक गए। तब अंगद और हनुमान को जटायु के बड़े भाई संपाती से यह सूचना मिली कि माता सीता को लंकापति नरेश रावण बलपूर्वक लंका ले गया है।
‘सुंदरकांड की कथा’
जटायु के भाई संपाती से माता सीता के बारे में खबर मिलते ही हनुमान जी ने अपना विशाल रूप धारण किया और उस विशाल समुद्र को पार कर लंका पहुंच गए। हनुमान जी ने लंका पहुंच कर वहां माता सीता की खोज शुरू कर दी । बहुत खोजने के बाद माता सीता उन्हें अशोक वाटिका में मिली। जहां पर रावण की बहुत सारी राक्षसी दासियां माता सीता को रावण से विवाह करने के लिए बाध्य कर रही थीं। सभी राक्षसी दासियों के चले जाने के बाद हनुमान माता सीता तक पहुंचे और उनको भगवान राम की अंगूठी देकर अपने राम भक्त होने की पहचान कराई। हनुमान जी ने माता सीता को अपने साथ भगवान राम के पास चलने को कहा, लेकिन माता सीता ने यह कहकर इंकार कर दिया कि भगवान राम के अलावा वह किसी और नर को स्पर्श करने की अनुमति नहीं देंगी। माता सीता ने कहा कि प्रभु राम स्वयं उन्हें लेने आएंगे और उनके अपमान का बदला लेंगे।
फिर हनुमान जी माता सीता से आज्ञा लेकर अशोक वाटिका के पेड़ों को उखाड़ना और तबाह करना शुरू कर देते हैं। इसी बीच हनुमान जी रावण के 1 पुत्र अक्षय कुमार का भी वध कर देते हैं। तब रावण का दूसरा पुत्र मेघनाथ हनुमान जी को बंदी बनाकर रावण के समक्ष दरबार में हाजिर करता है। हनुमान जी रावण के दरबार में उसके समक्ष भगवान राम की पत्नी सीता को छोड़ने के लिए रावण को बहुत समझाते हैं। रावण क्रोधित होकर हनुमान जी की पूंछ में आग लगाने का आदेश देता है। हनुमान जी की पूंछ में आग लगते ही वह उछलते हुए एक महल से दूसरे महल, एक छत से दूसरी छत पर जाकर पूरी लंका नगरी में आग लगा देते हैं। और वापस विशाल रूप धारण कर किष्किंधा पहुंच जाते हैं। वहां पहुंचकर हनुमान जी भगवान राम और लक्ष्मण को माता सीता की सारी सूचना देते हैं।
‘लंकाकांड की कथा’
लंकाकांड (युद्ध कांड) में भगवान राम और रावण की सेनाओं के बीच युद्ध को दर्शाया गया है। भगवान राम को जब अपनी पत्नी सीता की सूचना हनुमान से प्राप्त होती है तब भगवान राम और लक्ष्मण अपने साथियों और वानर दल के साथ दक्षिणी समुंद्र के किनारे पर पहुंचते हैं। वहीं पर भगवान राम की भेंट रावण के भाई विभीषण से होती है, जो रावण और लंका की पूरी जानकारी भगवान राम को देते हैं। नल और नील नामक दो वानरों की सहायता से पूरा वानर दल मिलकर समुद्र को पार करने के लिए रामसेतु का निर्माण करता है, ताकि भगवान राम और उनकी वानर सेना लंका तक पहुंच सकें। लंका पहुंचने के बाद भगवान राम और लंकापति रावण का भीषण युद्ध हुआ, जिसमें भगवान राम ने रावण का वध कर दिया। इसके बाद प्रभु राम ने विभीषण को लंका के सिंहासन पर बिठा दिया।
भगवान राम माता सीता से मिलने पर उन्हें अपनी पवित्रता सिद्ध करने के लिए ‘अग्निपरीक्षा’ देने को कहते हैं, क्योंकि प्रभु राम माता सीता की पवित्रता के लिए फैली अफवाहों को गलत साबित करना चाहते थे। जब माता सीता ने अग्नि में प्रवेश किया तो उन्हें कोई हानि नहीं हुई और वह अग्नि परीक्षा में सफल हो गईं। इसके उपरांत भगवान राम, माता सीता और लक्ष्मण वनवास की अवधि समाप्त कर अयोध्या लौट जाते हैं। और अयोध्या में बड़े ही हर्षोल्लास के साथ भगवान राम का राज्यभिषेक होता है। इस तरह से रामराज्य की शुरुआत होती है।
‘उत्तरकांड की कथा’
उत्तरकांड की कथा महर्षि वाल्मीकि की वास्तविक कहानी का अंश माना जाता है। इस कांड में भगवान राम के राजा बनने के बाद भगवान राम अपनी पत्नी सीता के साथ सुखद जीवन व्यतीत करते हैं। कुछ समय बाद माता सीता गर्भवती हो जाती हैं, लेकिन जब अयोध्या के वासियों को माता सीता की अग्नि परीक्षा की खबर मिलती है तो आम जनता और प्रजा के दबाव में आकर भगवान राम अपनी पत्नी सीता को वन भेज देते हैं। वन में महर्षि वाल्मीकि माता सीता को अपने आश्रम में आश्रय देते हैं, और वहीं पर माता सीता भगवान राम के दो जुड़वा पुत्र, लव और कुश को जन्म देती हैं। लव और कुश महर्षि वाल्मीकि के शिष्य बन जाते हैं और उनसे शिक्षा ग्रहण करते हैं।
महर्षि वाल्मीकि ने इसी रामायण की रचना की और लव कुश को रामायण का ज्ञान दिया। बाद में भगवान राम अश्वमेघ यज्ञ का आयोजन करते हैं जिसमें महर्षि वाल्मीकि लव और कुश के साथ जाते हैं। भगवान राम और उनकी प्रजा के समक्ष लव और कुश महर्षि वाल्मीकि द्वारा रचित रामायण का गायन करते हैं। जब गायन करते हुए लव कुश द्वारा माता सीता को वनवास दिए जाने की कथा सुनाई जाती है तो भगवान राम बहुत दुखी होते हैं। तब वहां माता सीता आ जाती हैं। उसी समय भगवान राम को माता सीता लव कुश के बारे में बताती हैं.. भगवान राम को ज्ञात होता है कि लव कुश उनके ही पुत्र हैं। और फिर माता सीता धरती मां को अपनी गोद में लेने के लिए पुकारती हैं, और धरती के फटने पर माता सीता उसमें समा जाती हैं। कुछ वर्षों के बाद यमदूत आकर भगवान राम को यह सूचना देते हैं कि उनके रामअवतार का प्रयोजन अब पूरा हो चुका है, और उनका यह जीवन काल भी खत्म हो चुका है। तब भगवान राम अपने सभी सगे-संबंधी और गुरुजनों का आशीर्वाद लेकर सरयू नदी में प्रवेश करते हैं। और वहीं से अपने वास्तविक विष्णु रूप धारण कर अपने धाम चले जाते हैं।
धन्यवाद
ll प्रेम से बोलो राघव प्यारे की जय हो ll
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