नामकरण संस्कार

"नामकरण संस्कार"

नामकरण संस्कार हिन्दू धर्म संस्कारों में पंचम संस्कार है। यह संस्कार बालक के जन्म होने के ग्यारहवें दिन कर लेना चाहिेए। इसका कारण यह है कि पाराशर स्मृति के अनुसार जन्म के सूतक में ब्राह्मण दस दिन में, क्षत्रिय बारह दिन में, वैश्य पंद्रह दिन में तथा शूद्र एक मास में शुद्ध होता है। अतः अशौच बीतने पर ही नामकरण-संस्कार करना चाहिये, क्योंकि नाम के साथ मनुष्य का घनिष्ठ सम्बन्ध रहता है। नाम प्रायः दो होते हैं- एक गुप्त नाम दूसरा प्रचलित नाम। जैसे कहा गया है कि- दो नाम निश्चित करें, एक नाम नक्षत्र-सम्बन्धी हो तथा दूसरा नाम रुचि के अनुसार रखा गया हो। गुप्त नाम केवल माता-पिता को छोड़कर अन्य किसी को मालूम न हो। इससे उसके प्रति किया गया मारण, उच्चाटन तथा मोहन आदि अभिचार कर्म सफल नहीं हो पाता है। नक्षत्र या राशियों के अनुसार नाम रखने से लाभ यह है कि इससे जन्मकुंडली बनाने में आसानी होती है। नाम अत्यन्त सुन्दर तथा अर्थपूर्ण रखना चाहिेए। अशुभ तथा भद्दा नाम कदापि नहीं रखना चाहिये।

इस संस्कार को प्रायः दस दिन के सूतक की निवृत्ति के बाद ही किया जाता है। कहीं-कहीं जन्म के दसवें दिन सूतिका का शुद्धिकरण यज्ञ द्वारा करा कर भी संस्कार संपन्न किया जाता है। कहीं-कहीं 40वें दिन या एक वर्ष बीत जाने के बाद नामकरण करने की विधि प्रचलित है।

नामकरण-संस्कार से आयु तथा तेज़ की वृद्धि होती है l

बालक का नाम उसकी पहचान के लिए नहीं रखा जाता। मनोविज्ञान एवं अक्षर-विज्ञान के जानकारों का मत है कि नाम का प्रभाव व्यक्ति के स्थूल-सूक्ष्म व्यक्तित्व पर गहराई से पड़ता रहता है। नाम सोच-समझकर तो रखा ही जाए, साथ ही नाम रोशन करने वाले गुणों के विकास के प्रति जागरूक रहा जाए, यह आवश्यक है। हिन्दू धर्म में नामकरण संस्कार में इस उद्देश्य का बोध कराने वाले श्रेष्ठ सूत्र समाहित हैं।

नामकरण शिशु जन्म के बाद पहला संस्कार कहा जा सकता है। यूं तो जन्म के तुरन्त बाद ही जातकर्म संस्कार का विधान है, किन्तु वर्तमान परिस्थितियों में वह व्यवहार में नहीं दिखता। अपनी पद्धति में उसके तत्त्व को भी नामकरण के साथ समाहित कर लिया गया है। इस संस्कार के माध्यम से शिशु रूप में अवतरित जीवात्मा को कल्याणकारी यज्ञीय वातावरण का लाभ पहुंचाने का सत्प्रयास किया जाता है। जीव के पूर्व संचित संस्कारों में जो हीन हों, उनसे मुक्त कराना, जो श्रेष्ठ हों, उनका आभार मानना-अभीष्ट होता है। नामकरण संस्कार के समय शिशु के अन्दर मौलिक कल्याणकारी प्रवृत्तियों, आकांक्षाओं के स्थापन, जागरण के सूत्रों पर विचार करते हुए उनके अनुरूप वातावरण बनाना चाहिए। शिशु कन्या है या पुत्र, इसके भेदभाव को स्थान नहीं देना चाहिए। भारतीय संस्कृति में कहीं भी इस प्रकार का भेद नहीं है। शीलवती कन्या को दस पुत्रों के बराबर कहा गया है। इसके विपरीत पुत्र भी कुल धर्म को नष्ट करने वाला हो सकता है। इसलिए पुत्र या कन्या जो भी हो, उसके भीतर के अवांछनीय संस्कारों का निवारण करके श्रेष्ठतम की दिशा में प्रवाह पैदा करने की दृष्टि से नामकरण संस्कार कराया जाना चाहिए। यह संस्कार कराते समय शिशु के अभिभावकों तथा उपस्थित व्यक्तियों के मन में शिशु को जन्म देने के अतिरिक्त उन्हें श्रेष्ठ व्यक्तित्व सम्पन्न बनाने के महत्त्व का बोध होता है। भाव भरे वातावरण में प्राप्त सूत्रों को क्रियान्वित करने का उत्साह जागता है। आमतौर पर यह संस्कार जन्म के दसवें दिन किया जाता है। उस दिन जन्म सूतिका का निवारण-शुद्धिकरण भी किया जाता है। यह प्रसूति कार्य घर में ही हुआ हो, तो उस कक्ष को लीप-पोतकर, धोकर स्वच्छ करना चाहिए।

“यज्ञ पूजन की सामान्य व्यवस्था के साथ ही नामकरण संस्कार के लिए विशेष रूप से इन व्यवस्थाओं पर ध्यान देना चाहिए।”

यदि दसवें दिन नामकरण घर में ही कराया जा रहा है, तो वहाँ  समय पर स्वच्छता का कार्य पूरा कर लिया जाए तथा शिशु एवं माता को समय पर संस्कार के लिए तैयार कर दिया जाए।

अभिषेक के लिए कलश-पल्लव युक्त हो तथा कलश के कण्ठ में कलावा बंधा हो तथा रोली से ॐ, स्वस्तिक आदि शुभ चिह्न बने हों।

शिशु की कमर में बाँधने के लिए मेखला सूती या रेशमी धागे की बनी होती है। न हो, तो कलावा के सूत्र की बना लेनी चाहिए।

मधु प्राशन के लिए शहद तथा चटाने के लिए चाँदी की चम्मच। वह न हो, तो चाँदी की सलाई या अँगूठी अथवा स्टील की चम्मच आदि का प्रयोग किया जा सकता है।

 संस्कार के समय जहाँ माता शिशु को लेकर बैठे, वहीं वेदी के पास थोड़ा सा स्थान स्वच्छ करके, उस पर स्वस्तिक चिह्न बना दिया जाए। इसी स्थान पर बालक को भूमि स्पर्श कराया जाए।

नाम घोषणा के लिए थाली, सुन्दर तख्ती आदि हो। उस पर निर्धारित नाम पहले से सुन्दर ढंग से लिखा रहे। चन्दन रोली से लिखकर, उस पर चावल तथा फूल की पंखुड़ियाँ चिपकाकर, साबूदाने हलके पकाकर, उनमें रंग मिलाकर, उन्हें अक्षरों के आकार में चिपकाकर, स्लेट या तख्ती पर रंग-बिरंगी खड़ियों से नाम लिखे जा सकते हैं।

थाली, ट्रे या तख्ती को फूलों से सजाकर उस पर एक स्वच्छ वस्त्र ढककर रखा जाए। नाम घोषणा के समय उसका अनावरण किया जाए।

विशेष आहुति के लिए खीर, मिष्ठान या मेवा हो जिसे हवन सामग्री में मिलाकर आहुतियाँ दी जा सकें।

शिशु को माँ की गोद में रहने दिया जाए। पति उसके बायीं ओर बैठे। यदि शिशु सो रहा हो या शान्त रहता है, तो माँ की गोद में प्रारम्भ से ही रहने दिया जाए। अन्यथा कोई अन्य उसे सम्भाले, केवल विशेष कर्मकाण्ड के समय उसे वहाँ लाया जाए।

"क्रिया एवं भावना"

सींचन के लिए तैयार कलश में मुख्य कलश का थोड़ा-सा जल या गंगाजल मिलाएँ। मन्त्र के साथ बालक का संस्कार कराने वालों तथा उपकरणों पर सींचन किया जाए। भावना करें कि जो जीवात्मा शिशु के रूप में ईश्वर प्रदत्त सुअवसर का लाभ लेने अवतरित हुई है, उसका अभिनन्दन किया जा रहा है। ईश्वरीय योजना के अनुरूप शिशु में उत्तरदायित्वों के निर्वाह की क्षमता पैदा करने के लिए, श्रेष्ठ संस्कारों तथा सत् शक्तियों के स्रोत से, उस पर अनुदानों की वृष्टि हो रही है। उपस्थित सभी परिजन अपने भावनात्मक संगति से उस प्रक्रिया को अधिक प्राणवान् बनाते रहें।

धन्यवाद

प्रेम से बोले लक्ष्मी नारायण भगवान की जय।।

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