विवाह पूजन

(विवाह संस्कार) "विवाह के प्रकार"

विशेषकर विवाह आठ प्रकार के होते हैैं:

  1. ब्रह्म विवाह

दोनो पक्षों की सहमति से किसी समान वर्ग के सुयोज्ञ वर से कन्या का विवाह निश्चित कर देना ‘ब्रह्म विवाह’ कहलाता है। सामान्यतः इस विवाह के बाद कन्या को आभूषणयुक्त कर विदा किया जाता है। आज की व्यवस्था ‘ब्रह्म विवाह’ का ही स्वरूप है।

  1. दैव विवाह

किसी सेवा कार्य (विशेषतः धार्मिक अनुष्ठान) के मूल्य स्वरूप अपनी कन्या को दान में दे देना ‘दैव विवाह’ कहलाता है।

  1. आर्श विवाह

कन्या-पक्ष को कन्या का मूल्य दे कर (सामान्य रूप से गौदान कर) कन्या से विवाह कर लेना ‘आर्श विवाह’ कहलाता है।

  1. प्रजापत्य विवाह

कन्या की सहमति के बिना उसका विवाह अभिजात्य वर्ग के किसी वर से कर देना ‘प्रजापत्य विवाह’ कहलाता है।

  1. गंधर्व विवाह

परिवार वालों की सहमति के बिना वर एवं कन्या का बिना किसी रीति-रिवाज के आपस में विवाह कर लेना ‘गंधर्व विवाह’ कहलाता है। दुष्यंत ने शकुन्तला से ‘गंधर्व विवाह’ किया था। उनके पुत्र भरत के नाम से ही हमारे देश का नाम “भारतवर्ष” पड़ा।

  1. असुर विवाह

कन्या को आर्थिक रूप से प्राप्त कर (खरीद कर) विवाह कर लेना ‘असुर विवाह’ कहलाता है।

  1. राक्षस विवाह

कन्या की सहमति के बिना उसका अपहरण कर जबरदस्ती विवाह कर लेना ‘राक्षस विवाह’ कहलाता है।

  1. पैशाच विवाह

कन्या की अस्थिर मनोदशा (गहन निद्रा अथवा मानसिक दुर्बलता इत्यादि) का लाभ उठा कर उससे शारीरिक सम्बंध बनाकर उससे विवाह कर लेना ‘पैशाच विवाह’ कहलाता है।

हिन्दू धर्म में सद्गृहस्थ एवं परिवार निर्माण की जिम्मेदारी उठाने योग्य, शारीरिक तथा मानसिक परिपक्वता आ जाने पर ही युवक-युवतियों का विवाह संस्कार कराया जाता है। भारतीय संस्कृति के अनुसार विवाह एकमात्र शारीरिक या सामाजिक अनुबन्ध नहीं है, यहाँ दाम्पत्य को एक श्रेष्ठ आध्यात्मिक साधना का रूप माना गया है। इसीलिए कहा गया है ‘धन्यो गृहस्थाश्रमः’। सद्गृहस्थ समाज की अनुकूल व्यवस्था एवं विकास में सहायक होने के साथ ही श्रेष्ठ नई पीढ़ी को जनने का भी कार्य करते हैं। तथा अपने संसाधनों से ब्रह्मचर्य, वानप्रस्थ एवं संन्यासी साधकों को वांछित हुए सहयोग प्रदान करते हैं। ऐसे सद्गृहस्थ बनाने हेतु विवाह को रूढ़ियों-कुरीतियों से मुक्त कराकर श्रेष्ठ संस्कार के रूप में पुनः प्रतिष्ठित करना आवश्क है। युग निर्माण के अन्तर्गत विवाह संस्कार के पारिवारिक एवं सामूहिक प्रयोग सफल और उपयोगी सिद्ध हुए हैं।

विवाह दो आत्माओं का पवित्र बन्धन है। दो व्यक्ति अपने अलग-अलग अस्तित्व को समाप्त कर एक सम्मिलित इकाई का निर्माण करते हैं। स्त्री और पुरुष दोनों को ही परमात्मा ने कुछ विशेषताएँ एवं कुछ अपूणर्ताएँ दी हैं। विवाह सम्मिलन में वर एवं कन्या एक-दूसरे की अपूर्णताओं को अपनी-अपनी विशेषताओं से पूर्ण करतें हैं, जिससे एक समग्र व्यक्तित्व का निर्माण होता है। इसलिए विवाह को सामान्य रूप से मानव जीवन की एक आवश्यकता माना गया है। एक-दूसरे को अपनी योग्यताओं और भावनाओं से लाभ पहुँचाते हुए गाड़ी में लगे दो पहियों की भांति प्रगति-पथ पर अग्रसर होते जाना ही विवाह का उद्देश्य है। वासना का दाम्पत्य-जीवन में अत्यन्त तुच्छ और गौण स्थान है। प्रधानतः विवाह का उद्देश्य दो आत्माओं के मिलने से उत्पन्न होने वाली उस महती शक्ति का निर्माण करना है, जो दोनों के लौकिक एवं आध्यात्मिक जीवन के विकास में सहायक सिद्ध हो सके।

विवाह संस्कार में देव पूजन, यज्ञ आदि से सम्बन्धित सभी व्यवस्थाएँ पहले से बनाकर रखनी चाहिए। सामूहिक विवाह हो, तो प्रत्येक जोड़े के हिसाब से प्रत्येक वेदी पर आवश्यक सामग्री रखनी चाहिए। कर्मकाण्ड ठीक से होते चलें, इसके लिए प्रत्येक वेदी पर एक-एक जानकार व्यक्ति भी नियुक्त करना चाहिए। एक ही विवाह है, तो आचार्य स्वयं ही देख-रेख रख सकते हैं। सामान्य व्यवस्था के अतिरिक्त जिन वस्तुओं की आवश्यकता विशेष कर्मकाण्ड में होती है, उन पर प्रारम्भ में दृष्टि डाल लेनी चाहिए। उसके सूत्र कुछ इस प्रकार हैं-

वर सत्कार के लिए सामग्री के साथ एक थाली रहे, ताकि हाथ-पैर धोने की क्रिया में जल फैले नहीं। मधुपर्क पान के बाद हाथ धुलाकर हटा दिया जाए। यज्ञोपवीत के लिए पीला रंगा हुआ यज्ञोपवीत एक जोड़ा रखा जाए। विवाह घोषणा के लिए वर-वधू पक्ष की पूरी जानकारी पहले से ही नोट कर ली जाए। वस्त्रोपहार तथा पुष्पोपहार के वस्त्र एवं मालाएँ तैयार रहें। कन्यादान में हाथ पीले करने हेतु हल्दी तथा गुप्तदान करने हेतु गुँथा हुआ आटा (लगभग एक पाव) रखें। ग्रन्थिबन्धन के लिए हल्दी, पुष्प,अक्षत, दुर्वा और द्रव्य हों। शिलारोहण के लिए पत्थर की शिला या समतल पत्थर का एक टुकड़ा रखा जाए। हवन सामग्री के अतिरिक्त लाजा (धान की खीलें) रखनी चाहिए। ‍वर-वधू के पद प्रक्षालन के लिए परात या थाली रखी जाए। पहले से वातावरण ऐसा बनाना चाहिए कि विवाह संस्कार के समय वर एवं कन्या पक्ष के अधिक से अधिक परिजन तथा स्नेही उपस्थित रहें। सबके भाव संयोग से कर्मकाण्ड के उद्देश्य में रचनात्मक सहयोग मिलता है। इसके लिए व्यक्तिगत एवं सामूहिक दोनों ही ढंग से आग्रह किए जा सकते हैं। विवाह के पूर्व यज्ञोपवीत संस्कार कर दिया जाता है। अविवाहितों को एक यज्ञोपवीत तथा विवाहितों को जोड़ा पहनाने का नियम है।

"वर का तिलक"

विवाह से पूर्व ‘तिलक’ का संक्षिप्त विधान कुछ इस प्रकार है-

वर पूर्वाभिमुख तथा तिलक करने बैठे भाई पश्चिमाभिमुख बैठकर निम्नकृत्य सम्पन्न करें- मंगलाचरण, षट्कर्म, तिलक, कलावा, कलशपूजन, गुरुवन्दना, गौरी-गणेश पूजन, सर्वदेव नमस्कार, स्वस्तिवाचन आदि। इसके बाद कन्यादाता वर का यथोचित स्वागत-सत्कार (पैर धुलाना, आचमन कराना तथा हल्दी से तिलक करके अक्षत लगाना) करें। ‍ तदोपरान्त ‘वर’ को प्रदान की जाने वाली समस्त सामग्री (थाल-थान, फल-फूल, द्रव्य-वस्त्रादि) कन्यादाता हाथ में लेकर संकल्प मन्त्र बोलते हुए वर को प्रदान करें-

ॐ विष्णुर्विष्णुर्विष्णुः श्रीमद्भगवतो महापुरुषस्य विष्णोराज्ञया प्रवर्तमानस्य, अद्य श्रीब्रह्मणो द्वितीये पर्राधे श्रीश्वेतवाराहकल्पे, वैवस्वतमन्वन्तरे, भूर्लोके, जम्बूद्वीपे, भारतर्वषे, भरतखण्डे, आर्यावर्त्तैकदेशान्तर्गते, ………. क्षेत्रे, ………. विक्रमाब्दे ………. संवत्सरे ………. मासानां मासोत्तमेमासे ………. मासे ………. पक्षे ………. तिथौ ………. वासरे ………. गोत्रोत्पन्नः …………(कन्यादाता) नामाऽहं ……………(कन्या-नाम) नाम्न्या कन्यायाः (भगिन्याः) करिष्यमाण उद्वाहकमर्णि एभिवर्रणद्रव्यैः ……………(वर का गोत्र) गोत्रोत्पन्नं ……………(वर का नाम) नामानं वरं कन्यादानार्थं वरपूजनपूर्वकं त्वामहं वृणे, तन्निमित्तकं यथाशक्ति भाण्डानि, वस्त्राणि, फलमिष्टान्नानि द्रव्याणि च……………(वर का नाम) वराय समपर्ये।

तत्पश्चात् क्षमा प्रार्थना, नमस्कार, विसर्जन तथा शान्ति पाठ करते हुए पूजा सम्पन्न करें।

"हरिद्रालेपन"

विवाह से पूर्व वर तथा कन्या को प्रायः हल्दी चढ़ाने का प्रचलन है, उसका संक्षिप्त विधान इस प्रकार है-

सवर्प्रथम षट्कर्म, तिलक, कलावा, कलशपूजन, गुरुवन्दना, गौरी-गणेश पूजन, सर्वदेवनमस्कार, स्वस्तिवाचन करें। तत्पश्चात् निम्न मंत्र बोलते हुए वर/कन्या की हथेली- अंग-अवयवों में लोकरीति के अनुसार हरिद्रालेपन करें-

ॐ काण्डात् काण्डात्प्ररोहन्ती, परुषः परुषस्परि। एवा नो दूवेर् प्र तनु, सहस्त्रेण शतेन च॥ -१३.२०

इसके बाद वर के दाहिने तथा कन्या के बायें हाथ में रक्षा सूत्रकंकण (पीले वस्त्र में कौड़ी, लोहे का छल्ला, पीली सरसों, पीला अक्षत आदि बाँधकर बनाया गया।) निम्नलिखित मन्त्र का उच्चारण करते हुए पहनाएँ-

ॐ यदाबध्नन्दाक्षायणा, हिरण्य शतानीकाय, सुमनस्यमानाः। तन्मऽआबध्नामि शतशारदाय, आयुष्मांजरदष्टियर्थासम्॥ -३४.५२

तत्पश्चात् क्षमा प्रार्थना, नमस्कार, विसर्जन, शान्तिपाठ के साथ पूजा पूर्ण करें।

"द्वार पूजा"

विवाह हेतु बारात जब द्वार पर आती है, तो सर्वप्रथम ‘वर’ का स्वागत-सत्कार किया जाता है, जिसका क्रम इस प्रकार है-

 ‘वर’ के द्वार पर आते ही आरती की प्रथा हो, तो कन्या की माता आरती कर लें। तत्पश्चात् ‘वर’ और कन्यादाता परस्पर अभिमुख बैठकर षट्कर्म, कलावा, तिलक, कलशपूजन, गुरुवन्दना, गौरी-गणेश पूजन, सर्वदेवनमस्कार, स्वस्तिवाचन करें। इसके बाद कन्यादाता वर सत्कार के सभी कृत्य आसन, अर्घ्य, पाद्य, आचमन, मधुपर्क आदि (विवाह संस्कार से पहले) सम्पन्न कराएँ। तत्पश्चात् निम्नलिखित मंत्र:

ॐ गन्धद्वारां दुराधर्षां नित्यपुष्टां करीषिणीम्। ईश्वरीं सर्वभूतानां तामिहोपह्वये श्रियम्॥ से तिलक लगाएँ तथा

ॐ अक्षन्नमीमदन्त ह्यवप्रिया अधूषत। अस्तोषत स्वभानवो विप्रा नविष्टया मती योजनान्विन्द्र ते हरी॥ से अक्षत लगाएँ।

माल्यार्पण एवं कुछ द्रव्य ‘वर’ को प्रदान करना हो, तो निम्नस्थ मंत्रों से सम्पन्न कराएं-

माल्यापर्ण मंत्र-

मङ्गलम् भगवान विष्णुः, मङ्गलम् गरुणध्वजः। मङ्गलम् पुण्डरी काक्षः, मङ्गलाय तनो हरिः॥

द्रव्यदान मन्त्र –

हिरण्यगर्भ: समवर्तताग्रे भूतस्य जात: पतिरेक आसीत्। स दाधार पृथिवीं द्यामुतेमां कस्मै देवाय हविषा विधेम॥

तत्पश्चात् क्षमाप्रार्थना, नमस्कार, देवविसर्जन एवं शान्तिपाठ करें।

"विवाह संस्कार का विशेष कमर्काण्ड"

विवाह वेदी पर वर और कन्या दोनों को बुलाया जाए तथा प्रवेश के साथ मंगलाचरण

भद्रं कर्णेभिः शृणुयाम देवा भद्रं पश्येमाक्षभिर्यजत्राः। स्थिरैरङ्गैस्तुष्टुवांसस्तनूभिर्व्यशेम देवहितं यदायुः॥

मंत्र बोलते हुए उन पर पुष्पाक्षत डाले जाएँ। कन्या दायीं तथा वर बायीं ओर बैठें। कन्यादान करने वाले प्रतिनिधि कन्या के पिता अथवा भाई जो भी हों, उन्हें पत्नी सहित कन्या की ओर बिठाया जाए। पत्नी दाहिने ओर तथा पति बायीं ओर बैठें। सभी के सामने आचमनी, पंचपात्र आदि उपकरण हों। पवित्रीकरण, आचमन, शिखा-वन्दन, प्राणायाम, न्यास, पृथ्वी-पूजन आदि षट्कर्म सम्पन्न करा लिये जाएँ।

वर सत्कार (अलग से द्वार पूजा में वर सत्कार कृत्य हो चुका हो, तो दुबारा करने की आवश्यकता नहीं है।) अतिथि रूप में आये हुए वर का सत्कार किया जाए।

(१) आसन (२) पाद्य (३) अर्घ्य  (४) आचमन (५) नैवेद्य आदि निधार्रित मंत्रों से समर्पित किए जाएँ।

दिशा और प्रेरणा वर का अतिथि के नाते सत्कार किया जाता है। गृहस्थाश्रम में गृहलक्ष्मी का महत्त्व सर्वोपरि होता है। इसलिए उसे लेने वर एवं उसके हितैषी परिजन कन्या के पिता के पास चल कर आते हैं। श्रेष्ठ उद्देश्य से सद्भावनापूर्वक आये अतिथियों का स्वागत करना, कन्या पक्ष का कर्त्तव्य हो जाता है। दोनों पक्षों को अपने-अपने इन सद्भावों को जाग्रत् रखना चाहिए।

वर का अर्थ होता है ?

श्रेष्ठ, स्वीकार करने योग्य। कन्या-पक्ष वर को अपनी कन्या के अनुरूप श्रेष्ठ व्यक्ति मानकर ही सम्बन्ध स्वीकार करें तथा उसी भाव से श्रेष्ठ भाव रखते हुए सत्कार करें तथा भगवान से प्रार्थना करें कि यह भाव सदा बनाये रखने में सहायता करें।

वर पक्ष सम्मान पाकर निरर्थक अहं न बढ़ाएँ। जिन मानवीय गुणों के कारण श्रेष्ठ मानकर वर का सत्कार करने की व्यवस्था ऋषियों ने बनाई है, उन शालीनता, जिम्मेदारी, आत्मीयता, सहकारिता जैसे गुणों को इतना जीवन्त बनाकर रखें कि कन्या पक्ष की सहज श्रद्धा उसके प्रति उमड़ती है l

कन्यादान : पिता अपनी कन्या का हाथ वर के हाथ में देता है।

 ‘कन्यादान का अर्थ’

कन्यादान का अर्थ है, अभिभावकों के उत्तरदायित्व का वर तथा ससुराल वालों के ऊपर स्थानान्तरण होना। अब तक कन्या के माता-पिता उसके भरण-पोषण, विकास, सुरक्षा, सुख-शान्ति, आनन्द-उल्लास आदि का प्रबंध करते थे, किन्तु अब वह प्रबन्ध वर और उसके कुटुम्बियों को करना होगा। कन्या नये घर में जाकर विरानेपन का अनुभव न कर पाये, तथा उसे स्नेह, सहयोग, सद्भाव की कमी का अनुभव न हो, इसका पूरा ध्यान वर तथा उसके परिजनों को रखना होगा। कन्यादान स्वीकार करते समय, पाणिग्रहण की जिम्मेदारी स्वीकार करते समय, वर तथा उसके अभिभावकों को यह बात भली-भांति अनुभव कर लेनी चाहिए, कि उन्हें उस उत्तरदायित्व को पूरी जिम्मेदारी के साथ निभाना है।

कन्यादान का अर्थ यह नहीं कि जिस प्रकार कोई सम्पत्ति, किसी को बेची या दान कर दी जाती है, उसी प्रकार कन्या को भी एक सम्पत्ति समझकर किसी को भी उपयोग करने हेतु दे दिया है। हर मनुष्य की एक स्वतन्त्र सत्ता एवं स्थिति है। कोई भी मनुष्य किसी मनुष्य को बेच या दान नहीं कर सकता। फिर चाहे वह पिता ही क्यों न हो। व्यक्ति के स्वतन्त्र अस्तित्व एवं अधिकार से इंकार नहीं किया जा सकता, और न ही उसे चुनौती दी जा सकती है। लड़की हो या लड़का अभिभावकों को यह अधिकार नहीं कि वे उन्हें बेचें या दान करें। ऐसा करना तो बच्चे के स्वतन्त्र व्यक्तित्व के तथ्य को ही झुठलाना हो जाएगा।

विवाह उभयपक्षीय समझौता है, जिसे वर और वधू दोनों ही पूरी ईमानदारी और निष्ठा के साथ निर्वाह कर सफल बनाते हैं। यदि कोई किसी को खरीदी या बेची सम्पत्ति के रूप में देखे और उस पर पशुओं जैसा स्वामित्व अनुभव कराए या व्यवहार करे, तो यह मानवता के मूलभूत अधिकारों का हनन करना ही होगा। कन्यादान का यह तात्पर्य कदापि नहीं, उसका प्रयोजन इतना ही है ।

"पाणिग्रहण"

दिशा एवं प्रेरणा

वर द्वारा मर्यादा स्वीकारोक्ति के बाद कन्या अपना हाथ वर के हाथ में तथा वर अपना हाथ कन्या के हाथ में सौंप दे। इस प्रकार दोनों एक दूसरे का पाणिग्रहण करते हैं। यह क्रिया हाथ से हाथ मिलाने जैसी होती है। मानों एक दूसरे को पकड़कर सहारा दे रहे हों। कन्यादान की तरह यह वर-दान की क्रिया तो नहीं होती, फिर भी इस अवसर पर वर की भावना भी ठीक वैसी होनी चाहिए, जैसी कि कन्या को अपना हाथ सौंपते समय होती है। वर भी यह अनुभव करे कि उसने अपने व्यक्तित्व, अपनी इच्छा, आकांक्षा एवं गतिविधियों के संचालन का केन्द्र इस वधू को बना लिया है,और अपना हाथ भी सौंप दिया है। दोनों एक दूसरे को आगे बढ़ाने के लिए एक दूसरे का हाथ जब भावनापूर्वक समाज के सम्मुख पकड़ लें, तो समझना चाहिए कि विवाह का प्रयोजन पूरा हो गया l

“क्रिया और भावना”

कन्या अपना हाथ वर की ओर बढ़ाये, वर उसे अँगूठे सहित (समग्र रूप से) पकड़ ले। भावना रखें कि दिव्य वातावरण में परस्पर मित्रता के भाव सहित एक-दूसरे के उत्तरदायित्व स्वीकार कर रहे हैं।

"शपथ आश्वासन"

वर व कन्या एक दूसरे के सिर पर हाथ रखकर समाज के सामने शपथ लेते हैं, तथा एक आश्वासन देकर अन्तिम प्रतिज्ञा करते हैं, कि वे निस्संदेह निश्चित रूप से एक-दूसरे के प्रति आजीवन ईमानदार, निष्ठावान् तथा वफादार रहने का विश्वास दिलाते हैं। पिछले कुछ समय से पुरुषों का व्यवहार स्त्रियों के साथ छली-कपटी और विश्वासघातियों जैसा रहा है। रूप, यौवन के लोभ में कुछ दिन मीठी बातें कर, बाद में क्रूरता एवं दुष्टता पर उतर आते हैं। पग-पग पर उन्हें सताते और तिरस्कृत करते हैं। प्रतिज्ञाओं को तोड़कर आर्थिक एवं चारित्रिक उच्छृंखलता बरतते हैं, तथा पत्नी की इच्छा की परवाह नहीं करते। समाज में ऐसी घटनाएँ कम घटित नहीं होतीं। ऐसी दशा में इन प्रतिज्ञाओं का एक औपचारिकता मात्र रह जाने की आशंका हो सकती है। सन्तान न होने पर अथवा मात्र लड़कियाें का ही जन्म होने पर लोग दूसरा विवाह करने पर उतारू हो जाते हैं। पति सिर पर हाथ रखकर कसम खाता है, कि दूसरे दुरात्माओं की श्रेणी में उसे न गिना जाए। इस प्रकार पत्नी भी अपनी निष्ठा के बारे में पति को इस शपथ-प्रतिज्ञा द्वारा विश्वास दिलाती है।

"पाद प्रक्षालन"

आसन परिवतर्न के बाद गृहस्थाश्रम के साधक के रूप में वर-वधू का सम्मान पाद प्रक्षालन करके किया जाता है। कन्या पक्ष की ओर से प्रतिनिधि स्वरूप कोई दम्पति या अकेले व्यक्ति पाद प्रक्षालन करे। पाद प्रक्षालन करने वालों का पवित्रीकरण-सिंचन किया जाए। हाथ में हल्दी, दूर्वा, थाली में जल लेकर प्रक्षालन करें। प्रथम मंत्र के साथ तीन बार वर-वधू के पैर पखारें, फिर दूसरे मंत्र के साथ यथा श्रद्धा भेंट दें।

"ग्रन्थिबन्धन"

दिशा और प्रेरणा

वर-वधू द्वारा पाणिग्रहण एकीकरण के बाद समाज द्वारा दोनों को एक गाँठ में बाँध दिया जाता है। दुपट्टे के छोर बाँधने का अर्थ है, दोनों का तन और मन से एक संयुक्त इकाई के रूप में एक नई सत्ता का आविर्भाव होना। अब दोनों एक-दूसरे के साथ पूरी तरह बँधे हुए हैं। ग्रन्थिबन्धन में धन, पुष्प, दूर्वा, हरिद्रा और अक्षत यह पाँच चीजें भी बाँधते हैं।

पैसा इसलिए रखा जाता है, कि धन पर किसी एक का अधिकार नहीं रहेगा। जो कमाई या सम्पत्ति होगी, उस पर दोनों की सहमति से योजना एवं व्यवस्था बनेगी।

‍दूर्वा का अर्थ है- कभी निर्जीव न होने वाली प्रेम भावना। दूर्वा का जीवन तत्त्व नष्ट नहीं होता, सूख जाने पर भी वह पानी डालने पर हरी हो जाती है। इसी प्रकार दोनों के मन में एक-दूसरे के लिए अजस्र प्रेम और आत्मीयता बनी रहे। चन्द्र-चकोर की तरह एक-दूसरे पर अपने को न्यौछावर करते रहें। अपना कष्ट कम और साथी का कष्ट बढ़कर मानें। अपने सुख की अपेक्षा साथी के सुख का अधिक ध्यान रखें। अपना आन्तरिक प्रेम एक-दूसरे पर न्यौछावर करते रहें।

हरिद्रा का अर्थ है- आरोग्य, एक-दूसरे के शारीरिक, मानसिक स्वास्थ्य को सुविकसित करने का प्रयास करें। ऐसा व्यवहार न करें, जिससे साथी का स्वास्थ्य खराब हो या मानसिक उद्वेग पैदा हो।

अक्षत, सामूहिक-सामाजिक विविध-विध उत्तरदायित्वों का स्मरण कराता है। कुटुम्ब में कितने ही व्यक्ति हों, उन सबका समुचित ध्यान रखना, सभी को सँभालना संयुक्त पति-पत्नी का परम पावन कत्तर्व्य है। ऐसा न हो कि एक-दूसरे को तो प्रेम करें, पर परिवार के लोगों की उपेक्षा करने लगें। इसी प्रकार परिवार से बाहर भी जन मानस सेवा की जिम्मेदारी हर भावनाशील मनुष्य पर रहती है। ऐसा न हो कि दो में से कोई किसी को अपने व्यक्तिगत स्वार्थ सहयोग तक ही सीमित कर ले, उसे समाज सेवा की सुविधा न हो l

"लाजाहोम एवं परिक्रमा (भाँवर)"

प्रायश्चित आहुति के बाद लाजाहोम और यज्ञाग्नि की परिक्रमा (भाँवर) का मिला-जुला क्रम चलता है। लाजाहोम के लिए कन्या का भाई एक सूप में खील (भुना हुआ धान) लेकर पीछे खड़ा हो। एक मुट्ठी खील अपनी बहन को दे। कन्या उसे वर को सौंप दे। वर उसे आहुति मन्त्र के साथ होंम कर दे। इस प्रकार तीन बार किया जाए। कन्या तीनों बार भाई के द्वारा दिये हुए खील को अपने पति को दे, वह तीनों बार हवन में अर्पण कर दें। लाजाहोम में भाई के घर से अन्न (खील के रूप में) बहन को मिलता है, उसे वह अपने पति को सौंप देती है। कहती है बेशक मेरे व्यक्तिगत उपयोग के लिए पिता के घर से मुझे कुछ मिला है,पर उसे मैं छिपाकर अलग नहीं रखती, आपको सौंपती हूँ।‍अलगाव या छिपाव का भाव किसी के मन में न आए, इसलिए जिस प्रकार पति कुछ कमाई करता है, तो पत्नी को सौंपता है, उसी प्रकार पत्नी भी अपनी उपलब्धियों को पति के हाथ में सौंपती है। पति सोचता है, हम लोग हाथ-पैर से जो कमायेंगे, उसी से अपना काम चलायेंगे, किसी के उदारतापूर्वक दिये हुए अनुदान को बिना श्रम किये खाकर क्यों हम किसी के ऋणी बनें। इसलिए पति उस लाजा को अपने खाने के लिए नहीं रखता, वरन् यज्ञ में होम कर देता है। जन कल्याण के लिए उस पदार्थ को वायुभूत बनाकर संसार के वायुमण्डल में बिखेर देता है। इस क्रिया में यहाँ महान मानवीय आदर्श सन्निहित है, कि मुफ्त में मिली वस्तु या तो स्वीकार ही न की जाए या मिले भी तो उसे लोकहित में खर्च कर दिया जाए। लोग अपनी-अपनी पसीने की कमाई पर ही गुजर-बसर करें। मृतक भोज के पीछे भी यही आदर्शवादिता थी, कि पिता के द्वारा उत्तराधिकार में मिले हुए धन को लड़के अपने काम में नहीं लेते थे, वरन् समाजसेवी ब्राह्मणों के निर्वाह में या अन्य पुण्यकार्यों में खर्च कर देते थे। यही दहेज के सम्बन्ध में भी ठीक है।

क्या है सप्तपदी (Saptpadi) ???

सात फेरे ही क्यों होते हैं… ?

भारतीय संस्कृति में 7 की संख्या मानव जीवन के लिए बहुत महत्वपूर्ण मानी गई है। जैसे हम देखते हैं : इंद्रधनुष के 7 रंग, 7 ग्रह, 7 तल, 7 समुद्र, 7 ऋषि, सप्त लोक, 7 चक्र, सूर्य के 7 घोड़े, सप्त रश्मि, धातुओं की बात करें तो सप्त धातु, सप्त पुरी, 7 प्रकार के तारे, सप्त द्वीप अर्थात् 7 द्वीप, 7 दिन, मंदिर या मूर्ति की 7 परिक्रमा, संगीत के 7 सुर आदि का उल्लेख किया जाता रहा है। यही सभी ध्यान रखते हुए अग्नि के 7 फेरे लेने का प्रचलन भी है, जिसे ‘सप्तपदी’ कहा गया है।

भाँवरें फिर लेने के उपरान्त सप्तपदी की जाती है। सात बार वर-वधू साथ-साथ कदम से कदम मिलाकर फौजी सैनिकों की भांति आगे बढ़ते हैं। सात चावल के ढेर या कलावा बँधे हुए सकोरे रख दिये जाते हैं, इन लक्ष्य-चिह्नों को पैर लगाते हुए दोनों एक-एक कदम आगे बढ़ते हैं, रुक जाते हैं, और फिर अगला कदम बढ़ाते हैं। इस प्रकार सात कदम बढ़ाये जाते हैं। प्रत्येक कदम के साथ एक-एक मंत्र बोला जाता है।

सात पग, ‘सप्तपदी’ में सात तरह के पग होते हैं, जिसमें पहला पग भोजन व्यवस्था के लिए बताया गया है, वहीं दूसरे पग की बात करें तो यह शक्ति संचय से सम्बंधित आहार तथा संयम के लिए होता है। तीसरा पग धन की प्रबंध व्यवस्था हेतु तथा चौथा आत्मिक सुख के लिए होता है। इसके बाद पांचवां पग पशुधन संपदा हेतु निर्दिष्ट है, छठा पग सभी ऋतुओं में उचित रहन-सहन के लिए है और अंतिम सातवां पग में कन्या अपने पति का अनुगमन करते हुए सदैव साथ चलने का वचन लेती है तथा सहर्ष पूरे जीवन भर पति के प्रत्येक कार्य में सहयोग देने का वचन देती है।

पहला कदम अन्न के लिए, दूसरा बल के लिए, तीसरा धन के लिए, चौथा सुख के लिए, पाँचवाँ परिवार के लिए, छठवाँ ऋतुचर्या के लिए और सातवाँ मित्रता के लिए उठाया जाता है। विवाह होने के उपरान्त पति- पत्नी को मिलकर सात कायर्क्रम अपनाने पड़ते हैं। उनमें दोनों का उचित और न्याय संगत योगदान रहे, इसकी रूपरेखा सप्तपदी में निधार्रित की गयी है।

किसी भी महत्त्वपूर्ण पद ग्रहण के साथ शपथ ग्रहण समारोह भी अनिवार्य रूप से जुड़ा रहता है। कन्यादान, पाणिग्रहण एवं ग्रन्थि-बन्धन हो जाने के साथ वर-वधू द्वारा और समाज द्वारा दाम्पत्य सूत्र में बँधने की स्वीकारोक्ति हो जाती है। इसके बाद अग्नि एवं देव-शक्तियों के साक्ष्य में दोनों को एक संयुक्त इकाई के रूप में ढालने का क्रम चलता है। इस बीच उन्हें अपने कर्त्तव्य धर्म का महत्त्व भली प्रकार समझना और उसके पालन का संकल्प लेना चाहिए। इस दिशा में पहली जिम्मेदारी वर की होती है। पहले वर तथा बाद में वधू को प्रतिज्ञाएँ कराई जाती हैं।

वर-वधू स्वयं प्रतिज्ञाएँ पढ़ें, यदि सम्भव न हो, तो आचार्य एक-एक कर प्रतिज्ञाएँ व्याख्या सहित समझाएँ।

"सप्तपदी वचन"

हिन्दू धर्म में विवाह के समय सात फेरे लिए जाते हैं जिन्हें हम ‘सप्तपदी’ नाम से जानते हैं। सप्तपदी के सात वचन हैं, जिन्हें वर और वधु के लिए बताया गया है। लड़की यह वचन अपने होने वाले पति से मांगती है। यह सात वचन दाम्पत्य जीवन को प्रेम, खुशहाल और सफल बनाने के लिए बहुत ही महत्पूर्ण भूमिका निभाते हैं। अक्सर देखा जाता है कि लोग विवाह के बाद इन सात वचनों को भूल जाते हैं इसलिए उनके दाम्पत्य जीवन में बाधा उत्पन्न हो जाती है।

पहला वचन (प्रथम पद) :

तीर्थव्रतोद्यापन यज्ञकर्म मया सहैव प्रियवयं कुर्या:
वामांगमायामि तदा त्वदीयं ब्रवीति वाक्यं प्रथमं कुमारी !

अर्थात् : कन्या अपने पहले वचन में वर से कहती है कि यदि आप कभी तीर्थयात्रा को जाओ तो मुझे भी अपने संग लेकर जाना। कोई व्रत-उपवास अथवा अन्य धर्म-कर्म का कोई कार्य करें तो आज की भांति ही मुझे अपने वाम भाग में अवश्य स्थान देंगे। यदि आप इसे स्वीकार करते हैं तो मैं आपके वामांग में आना स्वीकार करती हूं।

दूसरा वचन (द्वितीय पद) :

पुज्यो यथा स्वौ पितरौ ममापि तथेशभक्तो निजकर्म कुर्या:
वामांगमायामि तदा त्वदीयं ब्रवीति कन्या वचनं द्वितीयम !!

अर्थात् : कन्या अपने दूसरे वचन में यह वचन मांगती है कि जिस प्रकार आप अपने माता-पिता का सम्मान करते हैं, उसी प्रकार मेरे माता-पिता का भी सम्मान करें तथा कुटुम्ब की मर्यादा के अनुसार धर्मानुष्ठान करते हुए ईश्वर भक्त बने रहें, तो मैं आपके वामांग में आना स्वीकार करती हूं।

तीसरा वचन (त्रितीय पद) :

जीवनम अवस्थात्रये पालनां कुर्यात
वामांगंयामितदा त्वदीयं ब्रवीति कन्या वचनं तृतीयं !!

अर्थात् : कन्या तीसरे वचन में वर से यह मांगती है कि आप मुझे यह वचन दें कि आप जीवन की तीनों अवस्थाओं में मेरा पालन करते रहेंगे, तो ही मैं आपके वामांग में आना स्वीकार करती हूं।

चौथा वचन (चतुर्थ पद) :

कुटुम्बसंपालनसर्वकार्य कर्तु प्रतिज्ञां यदि कातं कुर्या:
वामांगमायामि तदा त्वदीयं ब्रवीति कन्या वचनं चतुर्थ: !!

अर्थात् : कन्या अपने चौथे वचन में कहती है कि अब तक आप घर-परिवार की चिंता से पूर्णत: मुक्त थे। अब जब कि आप विवाह बंधन में बंधने जा रहे हैं तो भविष्य में परिवार की समस्त आवश्यकताओं की पूर्ति का दा‍यित्व आपके कंधों पर होगा। यदि आप इस भार को वहन करने की प्रतिज्ञा करें तो ही मैं आपके वामांग में आना स्वीकार करती हूं।

पांचवां वचन (पंचम पद) :

स्वसद्यकार्ये व्यहारकर्मण्ये व्यये मामापि मन्‍त्रयेथा
वामांगमायामि तदा त्वदीयं ब्रूते वच: पंचमत्र कन्या !!

अर्थात् : पांचवें वचन में कन्या वर से जो वचन मांगती है वह आज के परिप्रेक्ष्य में अत्यंत महत्व रखता है। वह कहती है कि अपने घर के कार्यों में, लेन-देन अथवा अन्य किसी हेतु खर्च करते समय यदि आप मेरी भी मंत्रणा लिया करेंगे तो मैं आपके वामांग में आना स्वीकार करती हूं।

छठवां वचन (षष्ठ पद) :

न मेपमानमं सविधे सखीना द्यूतं न वा दुर्व्यसनं भंजश्वेत
वामाम्गमायामि तदा त्वदीयं ब्रवीति कन्या वचनं च षष्ठम !!

अर्थात् : कन्या अपने छठे वचन में कहती है कि यदि मैं अपनी सखियों अथवा अन्य स्‍त्रियों के बीच बैठी हूं, तो आप वहां सबके सम्मुख किसी भी कारण से मेरा अपमान नहीं करेंगे। यदि आप जुआ अथवा अन्य किसी भी प्रकार के दुर्व्यसन से खुद को दूर रखें तो ही मैं आपके वामांग में आना स्वीकार करती हूं।

सातवां वचन (सप्तम पद) :

परस्त्रियं मातूसमां समीक्ष्य स्नेहं सदा चेन्मयि कान्त कूर्या
वामांगमायामि तदा त्वदीयं ब्रूते वच: सप्तमंत्र कन्या !!

अर्थात् : कन्या अपने अंतिम वचन के रूप में वर से यह वचन मांगती है कि आप पराई स्त्रियों को माता के समान समझेंगे और पति-पत्नी के आपसी प्रेम के मध्य अन्य किसी को भागीदार नहीं बनाएंगे। यदि आप यह वचन मुझे दें तो ही मैं आपके वामांग में आना स्वीकार करती हूं।

"आसन परिवतर्न करें"

सप्तपदी के पश्चात् आसन परिवर्तन करते हैं। अब तक वधू दाहिनी ओर थी, अर्थात् बाहरी व्यक्ति जैसी स्थिति में थी। अब सप्तपदी होने तक की प्रतिज्ञाओं में आबद्ध हो जाने के उपरान्त वह घर वाली अपनी आत्मीय बन जाती है, इसलिए उसे बायीं ओर बैठाया जाता है। बायें से दायें लिखने का क्रम है। बायाँ प्रथम और दाहिना द्वितीय माना जाता है। सप्तपदी के बाद अब पत्नी को प्रमुखता प्राप्त हो गयी। उसके उपरांत सिंदूरदान करवाया जाता है, जिसके फलस्वरूप उन्हें भगवान के नामों के साथ जैसे-लक्ष्मी-नारायण्, उमा-महेश, सीता-राम, राधे-श्याम आदि नामों में पत्नी को प्रथम, पति को द्वितीय स्थान प्राप्त है। दाहिनी ओर से वधू का बायीं ओर आना, अधिकार हस्तांतरण है। बायीं ओर के बाद पत्नी गृहस्थ जीवन की प्रमुख सूत्रधार बनती है।

"ध्रुव-सूर्य ध्यान"

ध्रुव स्थिर तारा है। अन्य सब तारागण गतिशील रहते हैं, पर ध्रुव अपने निश्चित स्थान पर ही स्थिर रहता है। अन्य तारे उसकी परिक्रमा करते हैं। ध्रुव दर्शन का अर्थ है- दोनों अपने-अपने परम पवित्र कर्त्तव्यों पर उसी तरह दृढ़ रहेंगे, जैसे कि ध्रुव तारा स्थिर है। कुछ कारण उत्पन्न होने पर भी इस आदर्श से विचलित न होने की प्रतिज्ञा को निभाया जाए, व्रत को पाला जाए और संकल्प को पूरा किया जाए। ध्रुव स्थिर चित्त रहने तथा अपने कर्त्तव्यों पर दृढ़ रहने की प्रेरणा देता है। इसी प्रकार सूर्य की अपनी प्रखरता, तेजस्विता, महत्ता सदा स्थिर रहती है। वह अपने निधार्रित पथ पर ही चलता है, यही हमें करना चाहिए। यही भावना पति-पत्नी करें।

सूर्य ध्यान (दिन में):

ॐ तच्चक्षुदेर्वहितं पुरस्ताच्छुक्रमुच्चरत्। पश्येम शरदः शतं, जीवेम शरदः शतं, शृणुयाम शरदः शतं, प्रब्रवाम शरदः शतमदीनाः, स्याम शरदः शतं, भूयश्च शरदः शतात्।

ध्रुव ध्यान (रात में) :

ॐ ध्रुवमसि ध्रुवं त्वा पश्यामि, ध्रुवैधि पोष्ये मयि। मह्यं त्वादात् बृहस्पतिमर्यापत्या, प्रजावती संजीव शरदः शतम्।

"मंगलतिलक करें"

वधू वर को मंगल तिलक करे। भावना करे कि पति का सम्मान करते हुए गौरव को बढ़ाने वाली सिद्ध हो।

‍ॐ स्वस्तये वायुमुपब्रवामहै, सोमं स्वस्ति भुवनस्य यस्पतिः। बृहस्पतिं सवर्गणं स्वस्तये, स्वस्तयऽ आदित्यासो भवन्तु नः॥

इसके पश्चात् स्विष्टकृत होम, पूर्णाहुति, वसोधार्रा, आरती, घृत-अवघ्राण, भस्म धारण, क्षमा प्रार्थना आदि कृत्य सम्पन्न करें।

"अभिषेक सिंचन"

वर-कन्या को बिठाकर कलश का जल लेकर उनका सिंचन किया जाए। भावना की जाए कि जो सुसंस्कार बोये गये हैं, उन्हें दिव्यजल से सिंचित किया जा रहा है। सबके सद्भाव से उनका विकास होगा और सफलता-कुशलता के कल्याणप्रद सुफल उनमें लगेंगे। पुष्प वर्षा के रूप में सभी अपनी शुभकामनाएँ-आशीर्वाद प्रदान करें |

इसके बाद विसर्जन और आशीवर्चन के पुष्प प्रदान कर कृत्य संपन्न किया जाए।

धन्यवाद

प्रेम से बोले हर हर महादेव।।

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